भूतो न भविष्यति जनजातीय जननायक भगवान बिरसा मुण्डा

भूतो न भविष्यति जनजातीय जननायक भगवान बिरसा मुण्डा

भगवान बिरसा मुण्डा ने अपने 25 वर्ष के जीवन काल में ही जमींदारी प्रथा, राजस्व व्यवस्था इंडियन फारेस्ट एक्ट-1882 और धर्मातरण के खिलाफ अंग्रेजों एवं ईसाई पादरियों से संघर्ष किया। भगवान बिरसा मुण्डा जनजातियों की धार्मिक व्यवस्था, संस्कृति, परम्परा, अस्तित्व एवं अस्मिता रक्षक के प्रतीक हैं। वे संपूर्ण जनजातीय समाज का गौरव है। भारत सरकार ने बिरसा मुण्डा जयंती – 15 नवम्बर को “जनजातीय गौरव दिवस” के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। “जनजातीय गौरव दिवस” मनाना जनजातीय समाज का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण सनातन समाज का एकात्म भाव है।

भारत के विभिन्न प्रान्तों में बसी लगभग 705 जनजातियाँ जब अपने सपूतों की गौरव गाथा को याद करने बैठती हैं तो एक स्वर्णिम नाम उभरता है बिरसा मुण्डा, जिसे जनजातीय बन्धु बड़े प्यार और श्रद्धा के साथ बिरसा भगवान के रूप में नमन करते हैं। जनजातीय समाज ने एक नहीं अनेक रत्न दिए हैं। मणिपुर के जादोनांग, नागा रानी गाईदिन्ल्यु, राजस्थान के पूंजा भील, आंध्रप्रदेश के अल्लूरी सीताराम राजू, बिहार झारखण्ड के तिलका मांझी, सिद्धू-कान्हू वीर बुधु भगत, नीलाम्बर-पीताम्बर, जीतराम बेदिया, तेलंगा खड़िया, जतरा भगत, केरल के पलसी राजा तलक्ल चंदू, महाराष्ट्र के वीर राघोजी भांगरे, असम में शम्भूधन फुन्गलोसा आदि पर किसे गर्व नहीं होगा? बिरसा मुण्डा इन सबके प्रतीक हैं।

छोटा नागपुर (झारखण्ड) के उलीहातू ग्राम में 15 नवम्बर 1875 के दिन इस वीर शहीद जनजातीय जननायक का जन्म हुआ था। पिता सुगना मुण्डा और माता करमी अत्यन्त निर्धन थे और दूसरे गाँव जाकर मजदूरी का काम किया करते थे। उनके दो भाई एवं दो बहनें भी थीं। बिरसा का बचपन एक सामान्य वनवासी बालक की तरह ही धूल में खेलते, जंगलों में विचरते, भेड़-बकरियाँ चराते और बाँसुरी वादन करते बीता।

बालक बिरसा को उनके पिता पढ़ा-लिखा कर बड़ा साहब बनाना चाहते थे। माता-पिता ने उन्हें मामा के घर आयूबहातू भेज दिया। जहाँ बिरसा ने भेड़-बकरी चराने के साथ शिक्षक जयपाल नाग से अक्षर ज्ञान और गणित की प्रारम्भिक शिक्षा पाई। बिरसा ने बुर्जू मिशन स्कूल में प्राथमिक शिक्षा पाई। आगे की पढ़ाई के लिए वे चाईबासा के लूथरेन मिशन स्कूल में दाखिल हुए।

बिरसा के जीवन में बड़ा बदलाव उनकी स्कूली शिक्षा के दौरान ही आया। उन्हें इसी दौरान अहसास हुआ कि गरीब वनवासियों को शिक्षा के नाम पर ईसाई धर्म के प्रभाव में लाया जा रहा है। उन्होंने इसे अपने और अपने वनवासी भाई-बंधुओं के धर्म पर संकट माना। यह वह समय था जब वनवासियों के अधिकारों और धर्म की रक्षा के लिए ईसाई स्कूलों के विरोध में सरदार आन्दोलन शुरू हुआ था। बिरसा उस आन्दोलन में शामिल हो गये। बिरसा ने बचपन से मुण्डा आदिवासियों के शोषण को करीब से देखा था। आये दिन आदिवासियों पर अंग्रेजी राज के अनाचार से उनके मन में क्रांतिकारी ज्वाला प्रज्ज्वलित हो गयी।

बिरसा ने स्वाध्याय, चिंतन और साधना से स्वयं को परिष्कृत किया और फिर समाज को, अपना धर्म, अपनी मिट्टी और अपनी संस्कृति का परिचय कराया। धर्म परिवर्तन का विरोध किया। अपने धर्म के सिद्धांतों को समझाया। कुरीतियों को पाटने और अपनी संस्कृति बचाने के बिरसा के सामाजिक आन्दोलन से लोगों में चेतना जागी, विश्वास जागा। उन्हें अपने पूर्वजों की श्रेष्ठ परम्परा का आभास हुआ और जो लोग जोर-जबरदस्ती शोषण के डर से ईसाई हो गये थे उनकी अपने घर वापसी होने लगी।

बिरसा की चमत्कारी शक्ति और सेवा भावना के कारण वनवासी उन्हें भगवान का अवतार मानने लगे। वे उन्हें धरती आबा कहकर पुकारते। तभी वर्ष 1893-94 में सिंहभूम, मानभूम, पालामऊ और अन्य क्षेत्रों में खाली पड़ी भूमि को अंग्रेज सरकार ने भारतीय वन अधिनियम के तहत आरक्षित वन क्षेत्र घोषित किया। इसके अंतर्गत वनवासियों के अधिकारों को कम कर दिया गया। जंगलों पर सरकारी कब्जा कर लिया गया। बिरसा के नेतृत्व में वनवासियों ने याचिका दायर कर अपने अधिकारों की मांग की।

बिरसा ने अपने स्वत्व, स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिए नारा दिया- अबुआ दिशोम अबुआ राज’

अपना देश अपनी माटी के’ इस क्रांतिकारी नारे ने विदेशी आक्रांताओं के विरोध में वनवासी बंधुओं में अलख जगाई। बिरसा ने लोगों को किसानों का शोषण करने वाली कृषि व्यवस्था के विरोध में उठ खड़ा किया। वनांचल के प्राकृतिक अधिकारों को बहाल करने और लगान माफी के लिए अंग्रेजों के विरोध में मोर्चा खोला। बिरसा को गिरफ्तार करके हजारीबाग जेल में डाल दिया गया। बिरसा का अपराध यह था कि उन्होंने वनवासियों को अपने अधिकारों के लिये संगठित किया था। दो वर्ष बाद वे जेल से छूटे और फिर दिसम्बर 1899 को उनका आन्दोलन शुरू हो गया।

बिरसा ने वनवासी अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति बचाने के इस महासंग्राम को नाम दिया उलगुलान क्रांति। 5 हजार जनजातीय वीरों ने तीर-कमान उठा लिये। बिरसा के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने रांची से लेकर चाईबासा तक पुलिस चौकियों को घेर लिया। पुलिस थानों पर आक्रमण से शुरू हुआ यह संघर्ष अंग्रेजी सेना से सीधे मुकाबले तक जा पहुँचा। अंग्रेजी सेना के पास बन्दूक, बम आदि आधुनिक हथियार थे जबकि वनवासी क्रांतिकारियों के पास मात्र तीर-कमान थे। बड़ी संख्या में क्रांतिकारी मारे गये।

दुर्योग से दो गद्दार अंग्रेजों से जा मिले, जिन्होंने 3 जनवरी 1900 को चक्रधरपुर के जंगल से बिरसा मुण्डा को गिरफ्तार करवा दिया। बिरसा को जंजीरों में जकड़कर रांची जेल भेज दिया गया जहाँ उन्हें कठोर यातनाएँ दी गयी। दिनांक 9 जून 1900 को जेल में ही जहर देकर बिरसा को मार डाला गया।

आदिवीर शहीद बिरसा मुण्डा ने अंग्रेजी राज के धर्म और राष्ट्र को तोड़ने की साजिश को समाज तक पहुँचाया, उनके उलगुलान के संदेश से भयभीत होकर अंग्रेजों ने जमीन अधिग्रहण और नई जमींदारी रोकने के लिये छोटा नागपुर टेनेन्सी कानून पारित किया। वनवासियों के अधिकारों को बहाल कर दिया गया। बिरसा की जनजातीय चेतना ने लोगों को धर्म और राष्ट्र विरोधी विदेशी आक्रांताओं को भारत से बाहर निकालने का मार्ग प्रशस्त किया।

बिरसा मुण्डा का व्यक्तित्व और संघर्ष जनजाति समाज के लिए धर्म, संस्कृति और राष्ट्र रक्षा का प्रतीक है। वे भारतीय जनजातियों के गौरवशाली इतिहास का प्रतिनिधित्व करते हैं इसीलिए उनके जन्म-दिवस को राष्ट्रीय जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जाता है।

धर्म, संस्कृति और समाज की रक्षा करने वाले अमर वीर स्वाधीनता सेनानी वनवासियों के धरती आबा बिरसा मुण्डा को कोटिश: प्रणाम।

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