नारायणपुर से अबूझमाड़। बाइक करीब 5 किमी चली होगी। गिनती की गाड़ियां और सड़क का सन्नाटा देख समझ आ गया कि हम सही रास्ते पर हैं। कुछ ही दूर पर अबूझमाड़ का प्रवेश द्वार था। रंग उतर चुके दरवाजे पर माड़ में आपका हार्दिक स्वागत पढ़ने के साथ हमारी यात्रा व अनुभव की शुरुआत हुई।
अबूझमाड़ के एक ओर महाराष्ट्र का गढ़चिरौली व सुंदरनगर फॉरेस्ट रेंज है, ऊपर कांकेर और नीचे इंद्रावती नदी के पाट से इसकी सीमा बनती है। जंगलों और अंदरूनी गांवों को जोड़ते हुए ऐसे तो ढेरों रास्ते हैं लेकिन अबूझमाड़ के तीन रास्ते प्रमुख हैं।
दो रास्ते नारायणपुर ब्लॉक से ब्रहबेड़ा और कुकड़ाझोर गांव होकर जाते हैं। तीसरा रास्ता छोटेडोंगर, धनाेरा, रायनार होकर सीधा ओरछा यानी अबूझमाड़ के ब्लॉक मुख्यालय जाता है। मोटे तौर पर अबूझमाड़ की तासीर को दो हिस्से में बांटा जा सकता है एक जहां पक्की सड़क है यहां प्रशासन की सुनी जाती है। दूसरा हिस्सा वो है जहां आज भी पहुंचने का रास्ता पथरीला और दुर्गम है। अगर कहा जाये तो रास्ता है ही नहीं। इन इलाकों में ‘अंदर वालों’ ‘उधर वाले’ ‘दादा’ यानी नक्सलियों का कहा माना जाता है। आज भी अबूझमाड़ का 60 फीसदी से ज्यादा इलाका अति संवेदनशील कहा जाता है।
जहां सड़क …वहीं थाना, मोबाइल नेटवर्क व दुकानें
ब्रहबेड़ा से कुरुषनार, कोडोली, बासिन होकर कुंदला पहुंचने तक हमें आईटीबीपी व डीआरजी के छह गश्ती दल और रोड ओपनिंग पार्टी मिल चुकी थी। ब्रॉडबैंड के लिए ओएफसी केबल बिछाने का काम जारी है। 22 किमी के इस रास्ते पर अच्छी सड़क है। पुल-पुलिया दुरुस्त हैं, दो जगह निर्माण भी चल रहा। खेतों में सोलर पंप, छोटी दुकानें, स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र संचालित थे। हम सवा घंटे में पक्की सड़क के आखिरी गांव कोहकामेटा पहुंच चुके थे। यहां नए झूलों से सजी आंगनबाड़ी में 12 बच्चे नाश्ता कर रहे थे। सहायिका ने जब सुना कि हम अंदरूनी गांवों की ओर जा रहे तो उन्होंने आगे के तीन केंद्रों के लिए एक पर्ची देने की जिम्मेदारी सौंपी, जिसमें राशन ले जाने का संदेश लिखा था। गांव के मैदान में क्रिकेट टूर्नामेंट चल रहा था। कमेंट्री कर रहे थाना प्रभारी आकाश शर्मा ने बताया कि आसपास के 12 गांवों के खिलाड़ी यहां जुटे हैं। एक कोशिश है कि युवाओं को प्रेरित करने के साथ व्यवस्था से जोड़े रखा जाए।
पेड़ों और स्कूलों पर लिखे थे नारे
कोहकामेटा से आगे जैसे ही सड़क से डामर हटा सन्नाटा भी गहरा गया। 4 किमी आगे इरकभट्टी में रामकृष्ण मिशन के आश्रम यानी स्कूल की पक्की इमारत दिखी। यहां बैरियर लगाए कुछ युवक बैठे थे। पता चला कि इसी गांव में अबूझमाड़ियों का धरनास्थल है, जो ढाई महीने से विभिन्न मांगों के लिए अनशन पर बैठे हैं। मीडियाकर्मी होने के नाते आगे जाने की इजाजत मिली। यहां आश्रम की दीवार पर लाल रंग से चारू मजूमदार व कन्हाई चटर्जी से जुड़े नारे लिखे थे। पूछने पर कि इसे मिटाया नहीं ? आश्रम से जुड़े एक जिम्मेदार ने बताया कि यहां काम में दखलअंदाजी नहीं की जाती है, ‘उधर वाले’ भी हमें पढ़ाने से नहीं रोकते हैं। आगे धरनास्थल पर कुछ समय रुकने के बाद हम कच्चापाल की ओर बढ़े। 600-700 मीटर बाद ही जगह-जगह लाल बैनर दिखने लगे। कहीं डंडे पर बंधे थे, कहीं पेड़ पर टांगे गए थे। पेड़ पर कील से ठोककर पर्चे लगाए गए थे। यह स्पष्ट था कि इस ओर फोर्स की दखलअंदाजी भी कम ही रहती है।
पंचायत भवन ही नहीं है मगर रोज खुलता है वेलनेस सेंटर
कच्चापाल के बाद करीब 8 किमी दूर है कुतुल। कुतुल यानी सिर्फ गांव नहीं, इसे नक्सलियों की अघोषित राजधानी भी कहा जाता है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते रहे यह बात और गहराती गई। क्योंकि रास्ते में बैनर और पर्चों की तादाद बढ़ती गई। सड़क खराब होती गई। रास्ते में कई जगह पत्थरों से दबाकर पर्चे रखे गए थे। मन पर भी पत्थर था कि आगे बढ़ना कहीं घातक तो नहीं होगा।
करीब 45 मिनट बाद सामने बसाहट दिखी। दूर से ही लाल रंग का बैनर दिख रहा था। पास पहुंचे तो सड़क की दोनों ओर बने लाल चबूतरेनुमे स्ट्रक्चर के ऊपर बैनर बंधे थे। सामने बड़ी दीवार नारों से भरी थी। इसे मिटाया क्यों नहीं जाता, इसका जवाब हमें इरकभट्टी में मिल चुका था। छोटे-से गांव में दस-दस कदम पर आश्रम, वेलनेस सेंटर, देवगुड़ी, साप्ताहिक बाजार और कुछ झोपड़ियां थीं। साप्ताहिक बाजार में भी बैनर बंधे थे।
अंदर वाले, मतलब नक्सली
हमें देख आश्रम से कुछ लोगों ने झांका जरूर मगर बाहर नहीं आए। हम ही अंदर गए और पूछा कि कुतुल की पंचायत कहां है? पहले कुछ ने कहा कि यह पंचायत नहीं है, फिर बताया कि नहीं यहां पंचायत भवन ही नहीं है। आश्रम के ठीक बगल स्थित वेलनेस सेंटर में हमारी उम्मीद के विपरीत तीन नर्सिंग स्टाफ बैठे थे। बाहर उनकी स्कूटी भी थी। क्या तीनों लोग रोज आते हैं ? इस सवाल पर बताया कि यहां तीन टीम है जो एक-एक दिन छोड़कर काम करती है। यानी सप्ताह में दो बार आना होता है।
हेल्थ सेंटर में आने से कभी रोका नहीं गया ? इस सवाल पर एक स्टाफ ने कहा कि कभी नहीं। बल्कि ‘अंदर वालों’ की ओर से यहीं ठहरने को दबाव बनाया जाता है। हमने इनकार किया कि यहां व्यवस्था नहीं है। ये हायर सेंटर भी नहीं है। क्या माओवादियों में से कभी कोई इलाज कराने आया है। खामोशीभरी मुस्कान के साथ जवाब मिला कि दवा लेने कौन आ रहा है, यह हमें नहीं पता होता है। दोपहर 3 बजने को थे। वहां का सन्नाटा भी थोड़ा परेशान कर रहा था। वापसी में कम से कम तीन घंटे लगते लिहाजा हमने तुरंत विदाई ली।
सड़क ही नहीं गांवों में सरपंच-सचिव नहीं आते
वापसी में हमने मोहंदी, कस्तूरमेटा से आकाबेड़ा का रास्ता चुना। यह करीब 8 किमी छोटा था और माड़ का अधिक से अधिक हिस्सा देखने की इच्छा भी थी। कुछ ही दूर चलने पर समझ आ गया कि बड़े-बुजुर्ग शॉर्टकट नहीं अपनाने की सलाह क्यों देते हैं। इस रास्ते पर सड़क थी ही नहीं, सिर्फ बोल्डरनुमा गोल पत्थर व चट्टानी रास्ता था। आबादी भी कम थी।
पहला गांव मोहंदी करीब 12 किमी दूर पड़ा। यहां स्कूल के भवन, दीवारों व दरवाजों को देखकर ही समझ आ गया कि यह लंबे समय से नहीं खुले हैं। सागौन की लकड़ी से बनी चहारदीवारी वाले घर से झांक रही महिला ने पूछने पर बताया कि यहां सरपंच-सचिव नहीं आते। हुकपाड़, तोयामेटा, कस्तुरमेटा होते और तीन नाले पार करते हुए करीब 20 किमी और चलकर हम आकाबेड़ा पहुंचे। यहां बाकी पंचायतों के ग्रामीणों ने एक और अनशनस्थल बनाया था। सामने पक्की सड़क की दुनिया हमारा इंतजार कर रही थी।